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विकाश दत्त मिश्रा/वाराणसी

वाराणसी। गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा में पूर्णता न होने के कारण भारत में छात्रों के लिए आगे बढऩे और पढऩे की राह असमंजसपूर्ण होती जा रही है। उत्तर भारत में छात्रों का एक बड़ी संख्या में विदेशों के लिए शैक्षणिक पलायन हो रहा है। आज उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार तभी संभव है जब हम उसकी असल चुनौतियों की पहचान कर सकें। यदि हमें उच्च शिक्षा प्रणाली की असल चुनौतियों को पहचानना है तो हमें कुछ दशक पीछे जाना होगा। सबसे पहले अस्सी के दशक तक शिक्षा नीति में अनुदान की प्राथमिकता थी। हालांकि अस्सी के दशक से ही बिना अनुदान की नीति को बढ़ावा दिया जाने लगा था। लेकिन, 2010 का दशक आते-आते स्थिति यह हो गई कि हमने उच्च शिक्षा में बिना अनुदान की नीति को स्वीकार कर लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि सार्वजनिक क्षेत्र की उच्च शिक्षा में गुणवत्ता का स्तर खराब होता गया और शिक्षा का बाजारीकरण साफ तौर पर सामने आया। इसका परिणाम यह हुआ कि सामान्य परिवारों के लिए शिक्षा साल दर साल महंगी होती चली गई। उच्च शिक्षा की मौजूदा स्थिति को समझने के लिए फिर से पीछे जाएं तो वर्ष 2004 में ‘निजी विश्वविद्यालय विधेयक व अध्यादेश आने के बाद बड़ी तादाद में निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना को बढ़ावा मिला था। दूसरी तरफ उच्च शिक्षा के निवेश में साल दर साल कटौती किए जाने से गरीब परिवारों के बच्चों के लिए परिस्थितियां पहले से विकट हुई हैं। इसकी पुष्टि केंद्र द्वारा शिक्षा के लिए दिए जाने वाले बजट का आकलन करने से होती है। पिछले पांच वर्षों के दौरान शिक्षा पर किए जाने वाले निवेश को बढ़ाने की बजाय इसमें लगातार कटौती हुई है। इसलिए उच्च शिक्षा में दूसरी सबसे बड़ी चुनौती बुनियादी सुविधाओं का अभाव और गुणवत्ता में आई कमी है। आज देश में ऐसे कॉलेज कम नहीं हैं जो कहने को तो कॉलेज हैं, पर छात्रों को बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। इसके अलावा अगले वर्ष उच्च शिक्षा के नजरिए से विश्वविद्यालय में संबद्ध महाविद्यालय का बढ़ता बोझ, पाठ्यक्रमों में बदलाव की मांग और ड्रापऑउट विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या असली चुनौतियां हैं जिनका संबंध भी कही न कहीं सार्वजनिक शिक्षा के ढहते ढांचे और निजीकरण से ही है। वहीं उच्च शिक्षा में अध्यापकों के रिक्त पद से जुड़े आंकड़े खुद अपनी हकीकत बता रहे हैं। इसका बुरा असर उच्च शिक्षा की अकादमिक गुणवत्ता पर पड़ा है। यदि हम विश्वविद्यालयों द्वारा तैयार किए गए पाठ्यक्रम की बात करें तो इसमें और सामाजिक व्यवहार के बीच भी कोई तालमेल नहीं दिखता है। दरअसल उच्च शिक्षा की अध्ययन सामग्री उपयोगी और मानवीय आवश्यकताओं पर आधारित कौशल विकास को बढ़ावा देने वाली होनी चाहिए। इसी प्रकार उच्च शिक्षा से ड्रापआउट होने वाले विद्यार्थियों को रोकना और सकल नामांकन अनुपात बढ़ाना भी इस क्षेत्र की एक बड़ी चुनौती है। भारत की उच्च शिक्षा में 18 से 23 वर्ष के आयु वर्ग के अंतर्गत सकल नामांकन अनुपात महज 26.3 प्रतिशत है जो कि अन्य विकसित और कई विकासशील देशों की तुलना में बहुत कम है। इससे स्पष्ट होता है कि आज भी देश के करीब 74 प्रतिशत युवा उच्च शिक्षा से बाहर हो जाते हैं।इससे जाहिर होता है कि सभी वर्गों के विद्यार्थियों को समान अवसर देना और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना आज भी दूर का सपना है। भारत जब स्वतंत्र हुआ था तब 20 विश्वविद्यालय और 500 कॉलेज थे। वर्तमान में 1000 से अधिक विश्वविद्यालय और करीब 40 हजार से अधिक कॉलेज हैं। संख्या की दृष्टि से उच्च शिक्षा में विकास होता दिखता है, लेकिन गुणवत्ता के मानकों पर यह दुनिया के अनेक देशों के मुकाबले पीछे है। असल में राजनीतिक फायदा लेने की आड़ में बेतुके कॉलेज खुलने से उच्च शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुई है। भारत की नई शिक्षा नीति बेहतर होने के साथ उच्च शिक्षा संस्थानों के पुनर्गठन और एकत्रीकरण की सिफारिश करती है। इसके मुताबिक यदि किसी शिक्षा संस्थान में विद्यार्थियों की संख्या कम है तो उसका किसी अन्य शिक्षा संस्थान में विलय कर दिया जाएगा। ऐसा हुआ तो आशंका यह है कि देश के दूरदराज के क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के प्रसार और प्रोत्साहन का कार्य रुक जाएगा तथा इससे कई ग्रामीण, पहाड़ी और जनजातीय अंचल के शिक्षा संस्थान बंद हो जाएंगे। कोरोना वैश्विक महामारी के दौरान इन क्षेत्रों के विद्यार्थियों की पढ़ाई पहले ही बुरी तरह प्रभावित हुई है। इस पर ध्यान देने की जरूरत है। ऑनलाइन शिक्षण का लाभ उन विद्यार्थियों को ही मिला है जो सर्वसम्पन्न और टेक्नोफ्रेंडली हैं और जिनके अभिभावक मोबाइल और इंटरनेट का खर्चा वहन करने की स्थिति में हैं। इससे उच्च शिक्षा से जुड़ी बुनियादी संरचना की कमजोरियां सतह पर आई हैं। सत्य है कि कोरोना काल में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों का एक बड़ा वर्ग पढ़ाई से छूट गया है। इसके लिए हम क्या कदम उठा रहे हैं? उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के साथ इस बात को भी भली-भांति समझने की आवश्यकता है कि उच्च शिक्षा को पूर्ण लाभ का धंधा नहीं बनाया जा सकता है। उच्च शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को एक अच्छा नागरिक बनाना होना चाहिए जो विकास के साथ ही सामाजिक न्याय के लिए अच्छी तरह से अपना योगदान दे सके।
इसलिए शिक्षा के व्यवसायीकरण और निजीकरण को बढ़ावा देने वाली नीति पर आगे बढऩे की बजाय सार्वजनिक क्षेत्र को प्राथमिकता देने वाली योजनाओं की आवश्यकता है। अतीत पर नजर डालें तो स्वतंत्रता के बाद समग्र शिक्षा व्यवस्था का सरकारीकरण हुआ। शैक्षिक संस्थाएं या तो सीधे तौर पर सरकार चलाती थी या सरकार के अनुदान से संस्थाएं चलती थी। विद्यार्थियों का निश्चित शुल्क, शिक्षकों का निश्चित वेतन एवं संस्था चलाने हेतु अनुदान जैसी व्यवस्थाएं बनी। कुछ समय के बाद सरकारी शैक्षिक संस्थाओं के स्तर में लगातार गिरावट आती गई।
इस कारण से निजी विद्यालयों का आकर्षण बढ़ा। शुरू में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में वस्तुओं के रूप में दान लेना शुरू हुआ। आगे जाकर छात्र से बड़ी मात्रा में दान लेना, शिक्षकों की निुयक्ति में पैसा लेना और कम वेतन देना शुरू हुआ। विद्यालयों में शिक्षा का स्तर गिरने से ट्यूशन प्रथा प्रारंभ हुई। क्रमश: शिक्षा का स्वरूप धंधे जैसा बनने लगा। 1960 के दशक में दक्षिण भारत में व्यवसायी उच्च शिक्षा के संस्थान बिना सरकारी अनुदान से खुले जिसमें छात्रों के पास बड़ी मात्रा में शुल्क लिया जाने लगा। जिसको उस समय की पीटेषन फी कहा गया। यह एक प्रकार से अमीरों के बालकों हेतु शैक्षिक संस्थान बन गए। 1990 के बाद दुनिया में वैश्वीकरण की हवा चली जिसको एलपीजी (लिबरेलाइजेशन, प्राइवेटाईजेशन, ग्लोबलाईजेशन) भी कहा गया जिसका शिक्षा पर भी प्रभाव हुआ। सरकारें उच्च शिक्षा में अपना हाथ खींचने लगी। आने वाले समय में सब कार्य प्रशासन एवं शिक्षा माफियाओं की मिलीभगत से होने लगे। यूं कहें कि ‘मामा के घर भोजन परोसने वाली मां फिर क्या कहना? कटु सत्य है कि व्यावसायिक उच्च शिक्षा उच्च मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ग के बस की बात नहीं रही। इससे देश की अनेक प्रतिभाएं भी कुंठित हो रही हैं। इन परिस्थितियों के कारण वर्तमान में शिक्षा का सिर्फ बाजारीकरण ही नहीं हुआ है। कहीं-कहीं पर तो यह एक प्रकार से अतिभ्रष्ट व्यापार हो गया है। इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र किस प्रकार के निर्माता होंगे? और इस प्रकार के छात्र देश के विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व करेंगे, तब देश का चरित्र कैसा बनेगा? जब तक शिक्षा का बाजारीकरण नहीं रुकेगा, तब तक बाकी सारी गलत बातें बढऩा स्वाभाविक है।