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विकास दत्त मिश्रा/वाराणसी

स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार उपराष्ट्रपति के प्रति अविश्वास प्रस्ताव की औपचारिक सूचना राज्यसभा सचिवालय को सौंप दी गई है। यह दुखद स्थिति है। भारत में संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं।

इस समय जगदीप धनखड़ भारत में दूसरे क्रम के संवैधानिक यानी उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के पदेन सभापति हैं। इसके पहले वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे।

पश्चिम बंगाल में राज्यपाल के पद पर रहते हुए लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई ममता बनर्जी की सरकार के ‘राज-काज’ में हस्तक्षेप करने के अवसर की खोजबीन में लगे रहते थे।

ममता बनर्जी ने कई बार इस मामला में संघ सरकार को पत्र भी दिया था। न होनी थी, सो कोई कार्रवाई नहीं हुई।

पश्चिम बंगाल के संदर्भ से भारत में वारेन हेस्टिंग्स की ऐतिहासिक स्थिति कौंध गई। वारेन हेस्टिंग्स 1773 से 1785 तक फोर्ट विलियम (बंगाल) प्रेसीडेंसी के पहले थे और बंगाल की सुप्रीम काउंसिल के अध्यक्ष थे।

1787 में उन पर महाभियोग चलाया गया था 1795 में वे बरी भी हो गये। महत्वपूर्ण यह है कि औपनिवेशिक शासन में भी शासक पर महाभियोग चला था। खैर, इस प्रसंग पर फिर कभी। फिलहाल तो वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर ही सोचना होगा।

जगदीप धनखड़ के उपराष्ट्रपति बन जाने के बाद उन से पद की गरिमा और दायित्व के पालन की उम्मीद देश को रही है। लेकिन लोकतंत्र और लोकतंत्र पर आस्था रखने वाले कई लोग इन के संवैधानिक व्यवहार से लगातार आहत होते रहे हैं।

सरकार और भारतीय जनता पार्टी के प्रति अतिरिक्त झुकाव और विपक्ष के प्रति नित्य टकराव इन का स्थाई भाव बन गया दिख जाता है।

विपक्ष सरकार की नीतियों का विरोध करता है, संवैधानिक पद संभाल रहे लोगों का तो विरोध नहीं करता है! संवाद लोकतंत्र का प्राण तत्व होता है। आरोप-प्रत्यारोप को क्या संवाद माना जा सकता है! शायद नहीं।

सरकार विभिन्न या सभी मुद्दों पर विपक्ष के प्रति संवादहीन रुख और रवैया अख्तियार कर ले तो सरकार का यह रुख और रवैया लोकतंत्र को नकारने की कोशिश के अलावा और क्या कहला सकता है! कोई सर्वसत्तावादी सरकार भले ही संवेदनहीन ढंग से विपक्ष को फालतू बनाने की कोशिश कर सकती है।

लोकतांत्रिक देश के संवैधानिक पदों पर आसीन प्रमुख व्यक्तियों को सरकार के इन इरादों का साझेदार बनने से क्यों नहीं बचना चाहिए!

दुर्भाग्यजनक ही है कि भारत के संवैधानिक प्रमुख कई महत्वपूर्ण अवसरों पर पक्षपातपूर्ण ढंग से सरकार के इस रुख और रवैया के साझेदार बन जाने से अपने को सफलतापूर्वक बचा नहीं पाये।

क्या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था का नव-यथार्थ है? इस की इति-मिति का गहराई से जायजा लिया जाना चाहिए।

इस बीच, पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक हिसाब-किताब का तरीका बदल रहा है। नया तौर-तरीका पूंजी और शक्ति के पक्ष-पोषण के लिए तैयार किया गया है।

मुश्किल वहां अधिक है जहां जनता जीवनयापन की बुनियादी सुविधा की कोई कारगर व्यवस्था नहीं हो पाई है, और वहां आम आदमी की बुनियादी जरूरत को काटकर धनाढ्यों के पक्ष में अर्थ-व्यवस्था को खड़ा किया गया है।

ऐसे देशों में भारत भी शामिल है। यहां की सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर न जाने कौन-सा भूत सवार हुआ कि कुछ एक में से भी एक धनाढ्य को दुनिया का सब से बड़ा धनपति बनाने की जिद और जुनून में देश की पहले से गरीब जनता को और भी दरिद्र बनने के प्रति लापरवाह हो गये! उनकी राजनीतिक जनविरोधी आदतों से देश में चिंताजनक माहौल बन गया है।

यह ठीक है कि गरीब लोगों को बहुत तरह से समर्थन की जरूरत होती है। लेकिन जीवन अन्न-अर्जित समर्थन पर निर्भरशील होता जाये और किसी दिन जीवनयापन का विकल्प खैरात बन जाये तो मनुष्य जीवन की यह सब से बड़ी दुर्घटना हो जाती है। जीवन-समर्थन जीवनयापन का विकल्प नहीं हो सकता है। समर्थन से चलनेवाला जीवन अपने व्यक्तित्व की गरिमा खो देता है।

परमुखापेक्षिता या मुंहतक्की सामान्य आदमी का सब से बड़ा दुख है। परमुखापेक्षिता और परतंत्रता के बीच क्या तात्विक अंतर होता है! स्थाई मुंहतक्की, स्थाई दुख। ऐसा दुख जो भीतर से इंसानी जीवन को खोखला कर देता है। मनुष्य के स्वतंत्र सामाजिक का जीवन के जज्बा की बुनियाद में परस्पर-निर्भरशीलता होती है परतंत्रता नहीं।

परस्पर-निर्भरशीलता जहां सामाजिकता की बुनियाद है वहीं शुद्ध-निर्भरशीलता को व्यक्ति और समाज दोनों के लिए दवा में ही जहर से कम नहीं माना जा सकता है। स्थाई परमुखापेक्षिता अंततः व्यक्ति के स्वत्व को ही समाप्त कर देती है। स्वत्व ही समाप्त हो जाये तो स्वतंत्रता का क्या मोल!

भारत में पिछले दिनों के राजनीतिक रवैया से व्यक्तित्व का स्वत्व ही समाप्त होता जा रहा है। धन के सामने मनुष्य के अन्य सारे गुण तिरोहित हो गये हैं। समाज में धनलिप्सा इतनी बढ़ गई है कि आदमी धन-पशु बनता जा रहा है। धन के दुर्वह अभाव और अनियंत्रित आधिक्य दोनों ही स्थितियों में मनुष्य अपने सारे मानवीय गुण खोने लगता है।

मानवोचित व्यवहार की उपेक्षा करने लगता है। आदमी धन से ही संवाद करने में दिलचस्पी लेने लगता है। मनुष्य बहुत खतरनाक ढंग तरीके से धन से विस्थापित होने लगता है। जाहिर है कि मनुष्य संवाद की निरर्थकताओं के अंत-हीन सिलसिले में फंस जाता है। संवाद और संस्कृति में गहरा संबंध होता है।

जीवन में स्वस्थ संवाद का महत्व है। इसलिए लोकतंत्र में भी संवाद का महत्व है। संवाद, सच्चा संवाद समानता के बिना संभव नहीं है। इसलिए लोकतंत्र में संवाद के साथ समानता का भी महत्व है। संवादहीन अमरता बहुत कष्टकर होती है।

अकेलापन जीवन का सब से बड़ा दुख होता है। संवाद के लिए मनमर्जी से मिलते-जुलते रहना जरूरी होता है। मनमर्जी का मतलब मन की पारस्परिकता की मर्जी है; दूसरे के मन का अपनी मर्जी! संवाद के लिए मनमर्जी के भीतर मन की पारस्परिकता की कद्र होनी चाहिए। लेकिन धनलिप्सा के कारण संवाद की निरर्थकता का सिलसिला रुकता ही नहीं है।

धनलिप्सा का मुख्य कारण अज्ञान है। अज्ञान यानी, मनुष्य के बनने की ऐतिहासिक प्रक्रिया की जानकारी का अभाव। व्यक्ति जीवन में आनंद के स्रोत के प्रति अज्ञान। व्यक्ति के अमर होने, यानी मरणोपरांत व्यक्ति की वैचारिक और मानसिक उपस्थिति के बने रहने की प्रक्रिया के प्रति अज्ञान और अपनी जिंदगी की सार्थकता के प्रति अज्ञान।

आदमी अपनी जरूरतों से कहीं अधिक अपनी लालसाओं से परेशान रहता है; अकसर कुत्सित इच्छाओं से। न सोने का हिरन होता है, न सोने जीवन होता है।

धन और धन की देवी उल्लू की सवारी करे वहां तक तो गनीमत, मुसीबत यह कि जीवन में अकसर और अधिकतर उल्लू धन की सवारी करता है।

प्रकृति के अलावा, किसी चमत्कार से जो भी मिलता है उसके पीछे कोई-न-कोई रात-दिन मेहनत करनेवाला मनुष्य होता है, भले ही सामने कोई और दिखे, लेकिन उसके पीछे की कहानी का मुख्य किरदार और कारीगर सिर्फ मनुष्य होता है।

मुंहतक्की के ऐसे भ्रमजाल में आदमी ऐसी आदत का गुलाम बन जाता है कि किसी दार्शनिक की हिम्मत भी न पड़े कि वह कायदे से बेहतर जीवन के संदर्भ में कह सके कि संतुष्ट सूअर से असंतुष्ट मनुष्य का जीवन अधिक बेहतर होता है।

बेहतर और सभ्य जीवन क्या होता है? जीवन की गुणवत्ता क्या होती है? इस तरह के सवाल पब्लिक स्फीयर से बहुत दूर हो जाते हैं।

राजनीतिक कयासबाजियों और अटकलबाजियों का दौर शुरू हो जाता है। देश की बेहतरीन विमर्शकारी प्रतिभाओं का फूहड़ कयासबाज और अटकलबाज में बदल जाने से भयानक बौद्धिक दुर्घटना किसी लोकतांत्रिक देश में और क्या हो सकती है?

व्यवस्था के पीछे सक्रिय जीवन प्रसंग में सार्थक तर्क-वितर्क की किसी शैली की खास जरूरत न रह जाये और वितंडा का प्रभुत्व स्थापित हो जाये तो विश्लेषण और विमर्श क्या खाक होगा!

खैरात पर जिंदगी बसर करने की आदत डालना गुलाम बनने-बनाने की शुरुआत होती है। गुलाम बनानेवाली राजनीति पता नहीं किस तरह से आत्मनिर्भर बनने के खैराती ख्वाबों में लोगों को फंसा लेती है! यह कहना मुश्किल है कि लोग इस तरकीब से फंसते हैं या किन्हीं अन्य तरकीबों से!

लोग यदि किन्हीं अन्य तरकीबों से फंसाये जाते होते तो कहीं-न-कहीं से आवाज जरूर उठती सुनाई देती! आवाजें तो उठती हैं लेकिन जनता की उठती हुई आवाजों की ताकत से अधिक ताकतवर मीडिया और सत्ता की अनुकूल पारस्परिकता की आवाज होती है। मीडिया और सत्ता की अनुकूल पारस्परिकता के सामने जनता की आवाज खुद जनता को ही कहां सुनाई देती है!

किसान आंदोलन हो या कर्मचारी आंदोलन हो, छात्र आंदोलन हो एक आंदोलन की आवाज दूसरे आंदोलन तक ठीक से कभी पहुंच ही नहीं पाती है। उनमें कभी बात नहीं हो पाती है। आखिर भरोसा, जो हुआ करता था, कहां बिलाता चला गया! कहना न होगा कि इन्हीं आवाजों को देश की संसद तक पहुंचाना विपक्ष की उपयोगिता का आधार भी है और कर्तव्य भी है।

जनता की आवाजों के संसद में न पहुंचने देने के लिए विपक्ष को पंगु बनाने के सरकारी इरादों को संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्ति रोक सकते हैं। वे ऐसा नहीं कर पाते हैं, बल्कि कहा जाना चाहिए कि अधिकतर अवसरों पर सरकार के कुत्सित इरादों के साझेदार बनते हुए भी दिख जाते हैं।

ऐसी दुखद परिस्थितियों में राज्यसभा के पदेन सभापति और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के प्रति विपक्ष की तरफ से अविश्वास प्रस्ताव की सूचना जमा की गई है।

अविश्वास प्रस्ताव का क्या होगा? पारित होगा या खारिज होगा? जो भी हो सदन में इस पर चर्चा के समय वे राज्यसभा के सभापति की भूमिका में नहीं होंगे।

राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में चर्चा के दौरान कई तरह की बातें न सिर्फ राजनीतिक यथार्थ के सतह पर आ जायेगी, बल्कि वह भिन्न तरीके से संसदीय कार्रवाई का हिस्सा बन जायेगी। भरोसा यानी विश्वास जीवन में कितना महत्वपूर्ण होता है, कहने की जरूरत नहीं है।

भरोसा संस्कृति का उत्पाद होता है जो राजनीति के लिए विटामिन का काम करता है। लेकिन यह भरोसा राजनीति से सीमित नहीं होता है। विविधताओं से संपन्न बहु-आयामी भारत की सहमिलानी संस्कृति को विफल बनाकर जिस किस्म के एकार्थी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की एक आयामी रूपरेखा तैयार हुई है, कहीं उसी निकृष्ट राजनीति में इस दुखद स्थिति की जड़ तो नहीं है!

जाने कौन-सा कमाल कहां छिपा हुआ है! कमाल तो यह है कि यह सब वैसे ही किसी को नहीं दिखता है जैसे फसल को चाट जानेवाला कीड़ा किसान को नहीं दिखता है! अंग्रेजों के शासन के खिलाफ मुकाबला बहुत कठिन था लेकिन अपनी ही आत्महंता प्रवृत्ति से मुकाबला तो असंभव ही साबित हो रहा है।

जो दिखाई देता है वह सच है, जो नहीं दिखता है वह उस से बड़ा सच होता है। दिखाई देती है प्रार्थना लेकिन प्रार्थना के प्रारूप में छिपा प्रहार नहीं दिखाई देता है।

चुनावी बांड योजना-ईबीएस की असंवैधानिकता दिखती है, लेकिन इस योजना से मिले धन की ‘अपवित्रता’ नहीं दिखाई देती है। आजादी के समय पूजा-स्थलों की यथा-स्थिति बनाये रखने की खास जरूरत तो दिखाई देती है, लेकिन पूजा-स्थलों के सर्वेक्षण में कोई खतरा नहीं दिखाई देता है।

दिखता है कुछ और होता है कुछ और! कहां की पारदर्शिता कैसी पारदर्शिता! ऐसे में अविश्वास प्रस्ताव पर कौन-सा संसदीय रुख सामने आयेगा कुछ भी कहना मुश्किल है, हां इंतजार तो करना ही होगा। नागरिक समाज सोचे, सोचे कि आखिर भरोसा, जो हुआ करता था, कहां बिलाता चला गया!