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– वो गुल्ली- डंडा वाले दिन
– वो गुड़ियों- गुड्डो वाले दिन

(सोनभद्र कार्यालय)

सोनभद्र। किसी शायर ने ठीक ही कहा है, ‘ए दौलत भी लेलो , ए शोहरत भी लेलो , भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो , वो कागज़ की कस्ती , वो बारिश का पानी ‘ बचपन हर गम से बेगाना होता है । यह एक दम सही है लेकिन
समस्या तब खड़ी हो गई है जब जीवन के भाग-दौड़ में आज हम बच्चों का बचपन छीन लिए है ।
भौतिकता की चकाचौध में यह भूल ही गए है कि खेलने-खाने के दिन हम नौनिहालों को पढ़ाई
के लिए भेज दे रहे हैं । इस तरह की चर्चा गुरुवार को कई वरिष्ठ नागरिकों ने करते हुए कुछ सुझाव
भी दिए । रॉबर्ट्सगंज क्षेत्र के जुड़ी गाँव के बलवंत आचार्य कहते है बच्चों को 5 साल तक स्कूल नहीं भेजना चाहिए । यह उम्र शैशवावस्था है ।
इसमें शिशुओं की इंद्रियों का विकास होता है । उन्हें पर्याप्त समय मिलना चाहिए अपने परिवार और रिश्तेदारों से समरस होने का। श्रीमती रुचि मिश्रा काशी हिंदू विश्वविद्यालय की प्रक्षित परास्नातक टी ई टी पास हैं । कहती है शिशुओं का विकास माँ की ममतामयी छांव में होना चाहिए। गुड्डा – गुड़ियों वाली उम्र में लोग प्ले क्लास में मासूमों को भेज दे रहे है।

बोले शिक्षाविद
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आदिवासी इण्टर कालेज सिलथम के राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत प्रिंसिपल डॉक्टर विजेंदर
सिंह जाने माने शिक्षाविद हैं। कहते है , प्राचीन काल में 10 वर्ष की आयु पूरी करने पर गुरुकुलों
में प्रवेश मिलता था। मध्यकाल में बौद्धकालीन शिक्षा में विहारों में प्रवेश के लिए ‘ प्रबज्जा ‘ संस्कार के लिए आयु 7 वर्ष रहती थी ।
मुगल काल मे मकतब , मदरसे आदि में चार वर्ष , चार माह और चार दिन का होने पर ‘ विस्मिल्लाह ‘ की रश्म पूरी होती थी। पहले प्राथमिक शिक्षा में एक ही फार्मूला अपनाया जता था। बालक जब अपने बाएं हाँथ को सर पर से लाकर दाहिने कान
को पकड़ लेता था तब प्रधान ध्यापक यह मान लेते थे कि छह वर्ष की इस कि आयु हो गई है ।
तब कक्षा एक में प्रवेश होता था। अब लोग पब्लिक स्कूलों में तीन वर्ष की आयु में ही शिशुओं का
एडमिशन प्ले क्लास में करा कर बच्चों का बचपना छीन ले रहे हैं। उन्होंने कहा , कुछ तो अच्छा किया जाय , बच्चे है , बच्चों का बच्चा रहने दिया जाय ।
विंध्यवासिनी चतुर्वेदी जनता इण्टर कालेज परासी पाण्डेय में समाज शास्त्र की प्रवक्ता हैं । कहती है बच्चों को दादा- दादी , नाना- नानी , ताऊ – ताई आदि के सानिध्य में रहने खेलने- खाने का
मौका मिलना चाहिए । इससे बच्चों को सामाजिक व्यवहारिक ज्ञान मिलता है । चतरा ब्लॉक के बभनियाव गांव की निवासी और एककॉलेज में अध्यापिका के पद पर कार्यरत अर्निका का मानना है कि नाजुक कंधों पर बस्ते का भार देना ठीक
नही है । जो उम्र गुड़िया गुड्डो से खेलने की है उसमें पढ़ाई का बोझ डाल देने से मासूम बचपना खो दे
रहे है । यही उम्र है जब रामायण ,
महाभारत , की कथा अपने घर के
पुरनियों की गोद में बैठ कर सुनते- सुनाते सीखते रहते हैं जिसकी शिक्षा केवल परिवार में
ही दी जाती है । बभनौली गाँव की मंशा एम ए पास गृहणी हैं । एक बेटी और एक बेटे की माँ भी हैं । दोनों बच्चे
विद्यालय में पढ़ भी रहे है । बताई की पांच साल पूरा होने पर
स्कूल भेजी थी । बच्चों की शैक्षिक प्रगति बेहतर है । दोनों अपने-अपने स्कूल में मेधावी छात्रों में शामिल हैं । ज्ञात हो
दोनों बच्चे केंद्रीय विद्यालय दिल्ली में छात्र हैं ।

इनसेट में
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मीठी-मीठी , प्यारी-प्यारी ,
लोरी रोज सुनाए चिड़िया ।
दूर देश अंजनी नगरी की भी ,
सैर कराए चिड़िया ।
बचपन बचाओ संस्था के
रमाकांत ने कहा कि यह अभियान पूरी दुनियां में चलाया
जा रहा है । नोबुल पुरष्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी बचपन
बचाने के लिए महत्वपूर्ण काम
किए है और अभी भी सक्रिय हैं ।
बच्चों का अपना अधिकार है । किसी को भी किसी बच्चे के बचपना को छीनने का अधिकार
नही है । उन्होंने कहा कि डेनमार्क
में तो ऐसे अभिभावकों को सज़ा
दी जाती है जो बच्चों के साथ नाइंसाफ़ी करते हैं । डेनमार्क सरकार बच्चे को ही ले कर अपने
तरीके से मानक के अनुसार पालन पोषण करने लगती है ।
अभी अपने देश मे जागरूकता
का अभाव है ।