Loading

सोनभद्र कार्यालय

सोनभद्र। आधुनिक शिक्षा प्रणाली बात उस समय की है जब हम अपने पीठ पर किताबों से भरे बैग लादकर तपती धूप में पैदल स्कूल जाया करते थे। उस समय स्कूल जाने का हमलोगो के अंदर जो जोश था वो देखने लायक ही था। बिना बोर्न बीटा और कॉम्प्लान के गेहूं के रोटी में इतना ताकत थी कि हम स्कूल दौड़ते हुए आते जाते थे। मुझे याद आता है जब मैं कक्षा चार में गया तो तीन साल पैदल स्कूल जाने के बाद मेरे पिता जी मुझे चार सौ रुपए की साइकिल दिए थे लेकिन वो चार सौ मेरे लिए चार हजार के बराबर थे। उस समय के जोश के आगे तीन किलोमीटर स्कूल की दूरी ऐसे लगता था मानो पड़ोसी के घर जा रहे है। स्कूल में भी पूरे दिन वहीं जोश भरा रहता था। लेकिन घड़ी में चार बजने का बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता था। चार बजे छुट्टी की घंटी बजने पर ऐसा लगता था मानो जिन्दगी की सारी खुशियां मिल गई हो। उस समय गुरु जी का भी जो सम्मान हम लोग जो करते थे वो आज देखने को नहीं मिलता क्योंकि गुरु जी भी शिष्य को अपने बच्चे की तरह मानते थे। भारत में गुरु और शिष्य का रिश्ता सदियों से ही अद्वितीय है। लेकिन आज पैसे और फैशन ने इस रिश्ते को धूमिल कर दिया है।
बात उस समय की है जब हम शाम ढलते ही लालटेन के शीशे को साफ कर मिट्टी का तेल भर कर रात में पढ़ने के लिए तैयार कर लेते थे। आज तो टिमटिमाती ट्यूबलाइट के आगे भी बच्चे चश्मा लगा के देखते हैं।
उस समय दो रुपए स्कूल के फिस में तीन किलो गेहूं भी हम लेके आते थे। लेकिन बहुत मज़ा आता था। आज के गार्जियन सिर्फ अपनी इज्जत इसी में बचाने में लगे हैं कि मेरा बेटा इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ता है। और इसी इज्जत का फायदा उठाकर स्कूल माफिया पैसे लूटने में लगे हैं। इसलिए फैशन पर मत जाईये अपनी औकात के हिसाब से बच्चों को शिक्षित करे।