यादों के झरोखे से–(विलुप्त होते जा रहे देश व्यंजनों के जायके)

 यादों के झरोखे से–(विलुप्त होते जा रहे देश व्यंजनों के जायके)

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मिथिलेश व्दिवेदी-(सोनभद्र)

● आज की युवा पीढ़ी नाम तक नही जानती

सोनभद्र । याद कीजिए सुबह नीब की दातुन करने के बाद पानी पीने के लिए माई द्वारा दी गई ‘ दहरेउरी ‘ दही , आटा के मिश्रण को घी में छानकर गुड़ की चासनी में भिगोई गुलाब जामुन की तरह रस भरी दहरेउरी ।
मड़वा में समधी के भात के समय परोसे जाने वाले बेसन , दूध ,समेत अन्य सामग्रियों से बने व्यंजनों के जायके को पुरनियां कैसे भूल सकते हैं ।
‘ रसाज ‘ का स्वाद गारी सुनते हुए लेने वाले बुढावा मनई अब दादा, बाबा, नाना बन गए है । आज भी याद करते है बेसन पानी में फेंटकर घी में बर्फी के आकर में छानकर दूध चीनी के घोल में भिगोया रस मलाई की तरह स्वादिष्ट व्यंजन रसाज को ।
‘ रिकवछ ‘ साल छह महीने पर जब भी बहन- बेटी नइहर करने आती थी तो ससुराल जाने के पहले पास पड़ोस में उनकी खातिरदारी रिकवछ व्यंजन से जरूर होती थी । अरुई के पत्ते को उर्द की पीठी में लपेट कर कड़ू के तेल में डोसा के आकार में छानकर निकाला जाता था। फिर पंचफोरन से बने परेह में डुबो दिया जाता था। स्वाद के अनुसार नमक हल्दी सालन में रहती थी। भफ़ौरी भाफ से बनी स्वादिष्ट लगती थी। पहले चूल्हि पर बटुआ – बटुइ में दाल-भात बनता था । ईधन गोइठा लकड़ी रहा करती थी । भतहा बटुआ के मुह पर एक पतला कपड़ा बांध
दिया जाता था । अदहन से जब भाफ निकलने लगती थी तब कपड़े पर अदौरी की तरह मसूर , केराव या चना की दाल की पीठी को खोंट दिया जाता था । भाफ से
सींझने के बाद उस बरी को पँचफोरन, हल्दी , नमक के परेह में डाल दिया जाता था । बड़ा स्वादिष्ट व्यंजन बरसात के मौसम का था । तेल पनियाँ का जायका भी भुलाए से भी नही भूलता । लगातार झकास बरसात के समय लकड़ी- गोइठा के अभाव के बीच कोई तरकारी भी नही रहती थी । ऐसे में बड़ी बूढ़ी फोरन में कोहड़ौरी भूनकर हल्दी नमक के साथ पानी लोहिया में डाल कर डभका देती रही । यह तेल पनियाँ दाल भात के साथ खाने में जायकेदार रहता था । सूरन , पकरी , बांस के करील , मुनगा के टूसा की तव पर बनी टिकरी कोरवर खाएँ या परे ह में भिगोकर जायका चटक रहता है । बरसात के समय बिजौरी , तिलौली , अदौरी ,चने के दाल का बटकर , गोल्हिया , करेमु आदि सहायक व्यंजन अब लुप्त से होते जा रहे है । महेरु , दनहीँ , महुआ का ठोकवा , महुआ का लट्टा , चकवड़ का साग , परमल , तिल तिल ई , मलगज़ा , सग पइता आदि अब भोजन में नही दिखते । जिससे हमारी पुरातन और सनातन व्यंजन अब आधुनिकता के दौर में हमसे दूर होती जा रही हैं और लोग बाग इसे खाने को कौन का है नाम तक लेना भूलते जा रहे हैं।


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