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विकास दत्त मिश्रा वाराणसी


वाराणसी। आर.एस.एस. का लक्ष्य हिंदुओं को हिंदू होने पर गर्व करना सिखाना है, जिसे देश को धार्मिक पहचान के आधार पर विभाजित किए बिना हासिल किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। भाजपा ने राजनीतिक वर्चस्व के लिए समाज में बढ़ते विभाजन का इस्तेमाल किया है। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में यह अपने प्रयासों में उल्लेखनीय रूप से सफल रही। हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों के नतीजों की घोषणा के बाद भाजपा को केंद्र में गठबंधन सरकार बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। उम्मीद थी कि बहुसंख्यकों और मुख्य अल्पसंख्यक, मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने की रणनीति को कमजोर किया जाएगा। दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं हुआ। यह न केवल ‘हमेशा की तरह चलने वाला काम’ है, बल्कि मुसलमानों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाली जगह, यानी उनकी आजीविका पर चोट करने की एक नई पहल यू.पी. और उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में शुरू की गई है।यह सब मुजफ्फरनगर में पुलिस द्वारा सभी भोजनालयों पर उनके मालिकों का नाम प्रदर्शित करने के आदेश से शुरू हुआ, ताकि गंगोत्री और हरिद्वार की वार्षिक तीर्थयात्रा करने वाले शिवभक्त मुस्लिम स्वामित्व वाले भोजनालयों में खाने से होने वाले प्रदूषण से बच सकें। ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस को लगा कि यदि तीर्थयात्रियों को विक्रेता का धर्म पता हो तो प्रदूषण से बचा जा सकता है! इन सभी वर्षों में यात्रा के दौरान गलतफहमी या तनाव की एक भी घटना नहीं हुई है। तो, अचानक घटनाओं में क्या बदलाव आया? योगी आदित्यनाथ की राज्य सरकार ने अगले ही दिन मुजफ्फरनगर पुलिस के आदेश का समर्थन किया और इसे यात्रा के मार्ग पर उत्तर प्रदेश के सभी पुलिस स्टेशनों तक बढ़ा दिया, जिससे पर्यवेक्षकों को यह महसूस होता है कि मूल विचार खुद सत्ता में मौजूद भाजपा सरकार से आया था। इसे तुरंत उत्तराखंड में धामी सरकार ने अपनाया,जहां हरिद्वार में कांवड़ यात्रा समाप्त होती है।

मुस्लिम विक्रेताओं को अपने परिवारों के लिए संभवत: एक वर्ष या अगले वर्ष के अधिक भाग के लिए कमाई करने के अवसर से वंचित करने के लिए कोई उचित कारण नहीं बताया गया। यद्यपि कांवडिय़ों की संख्या एक करोड़ तक पहुंच गई है, लेकिन इन सभी वर्षों में किसी भी प्रकार की कोई शिकायत नहीं मिली है। हालांकि यात्रियों द्वारा चुना गया मार्ग घनी मुस्लिम बस्तियों से होकर गुजरता है। इसके विपरीत, मुसलमान कांवडिय़ों की जरूरतों का ध्यान रखते हैं। सवाल यह उठता है कि क्या अब मुस्लिम-भेदभाव केवल पशु व्यापारियों की हत्या और ‘लव जेहाद’ तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि अब इसका उद्देश्य अल्पसंख्यकों को उनके जीवन-यापन से वंचित करना है। आदित्यनाथ की भाजपा सरकार इस गलत कदम से आखिर क्या हासिल करना चाहती है? नियमित यात्री जो हर साल उसी मार्ग से यात्रा करते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि विक्रेता स्थानीय मुस्लिम हैं। उनमें से अति रूढि़वादी लोगों ने कई साल पहले ही गैर-हिंदू विक्रेताओं को अपने संरक्षण से बाहर कर दिया होगा। इस नई पहल को प्रचारित करना क्यों जरूरी था, जो सिर्फ समुदायों को धार्मिक आधार पर विभाजित करने का काम करेगी? हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में भी धार्मिक आधार पर वोटों का चल रहा विभाजन योगी की पार्टी के लिए मददगार साबित नहीं हुआ।
उन्होंने 2019 के पिछले चुनाव में जीती गई आधी से ज्यादा लोकसभा सीटें खो दीं। क्या उन्हें वाकई लगता है कि आर्थिक आधार पर ज्यादा विभाजन से उन्हें अपने हाईकमान की नजर में अपनी छवि को फिर से बनाने में मदद मिलेगी? उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे अहम राज्यों में सांप्रदायिक आधार पर मतदाताओं को विभाजित करने की रणनीति काम नहीं आई। मोदी और शाह की भाजपा सरकार ने सी.ए.ए. (नागरिकता संशोधन अधिनियम) पेश किया, जिसमें मुसलमानों को अधिनियम के इच्छित लाभों से वंचित रखा गया। लेकिन अल्पसंख्यक समुदाय को भड़काने और अपने समर्थकों को यह समझाने के अलावा कि भारत में मुसलमानों का स्वागत नहीं है, यह अधिनियम क्यों जरूरी था?

व्यक्तिगत रूप से, मुझे कांग्रेस शासन में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं पता है, जहां पाकिस्तान, बंगलादेश या अफगानिस्तान से आए हिंदुओं को अनुरोध करने पर भारत में शरण और नागरिकता न दी गई हो।(अकेले असम में ही समस्या थी क्योंकि असमिया युवाओं को लगा कि बंगलादेशी हिंदुओं के साथ-साथ असम में अवैध रूप से प्रवेश करने वाले मुसलमान स्थानीय लोगों को रोजगार से वंचित कर रहे हैं। इसलिए असम राज्य के लिए विशेष कानून बनाए गए। ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ का खोखला वादा अक्सर दोहराया जा रहा है, खास तौर पर अंतर्राष्ट्रीय उपभोग के लिए। भारत में हम सच्चाई जानते हैं। जब मुस्लिम व्यापारियों को यात्राओं और मेलों में अपनी पहचान का विज्ञापन करने के लिए मजबूर किया जाएगा है, तो सभी के लिए समान व्यवहार की मृगतृष्णा वही रहेगी।

इस एन.डी.ए. सरकार में भाजपा का समर्थन करने वाले तीन दलों ने इसका विरोध किया है। सुप्रीम कोर्ट, जो महुआ मोइत्रा और अन्य की याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है, ने संबंधित पक्षों की सुनवाई से पहले ही अपनी दुकानों और ठेलों पर मालिकों के नाम की अनिवार्य छपाई पर ‘अंतरिम रोक’ लगाकर प्रतिक्रिया व्यक्त की है।