सोनभद्र-: आदिवासियों के देवता बसते है जंगल, पहाड़, गुफाओं कंदराओ में: दीपक केशरवानी

 सोनभद्र-: आदिवासियों के देवता बसते है जंगल, पहाड़, गुफाओं कंदराओ में: दीपक केशरवानी

 416 total views

प्रकृति की पूजा करते हुए आदिवासी

-गोड जाति फंडा पेंन और संजोर पेन की करती है पूजा।

-आदिवासी जातियां प्रकृति की है उपासक।

-मृत आत्माओं का भी अपना होता है परिवार।

-गोंड जाति में है 750 गोत्रहै।

-निराकार ब्रह्म की उपासक हैं आदिवासी जाति।

रॉबर्ट्सगंज (सोनभद्र)। विंध्य एवं कैमूर की ऊंची नीची पर्वत श्रृंखलाओं,नदियों, घाटियों पहाड़ियों, जंगलों के मध्य अवस्थित सोनभद्र जनपद अपनी विशेषताओं के कारण संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। लगभग 130 किलोमीटर के क्षेत्रफल में इस जनपद में भूतातात्विक, पुरातात्विक, ऐतिहासिक, प्राकृतिक धरोहरों के साथ-साथ आदिवासी संस्कृति, साहित्य, कला, विद्यमान है। बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ राज्यों से घिरे हुए इस जनपद में निवास करने वाली आदिवासी जातिया अपनी प्राचीन परंपरा को आज इस आधुनिक तकनीकी विकास एवं सांस्कृतिक संक्रमण के युग में भी कायम रखे हुए हैं।
आदिवासी बाहुल्य जनपद सोनभद्र में मुख्य रूप से गोड, पठारी, माझी, चेरो, खरवार, बैगा सहित अनेक जातियों एवं उपजातियां निवास करती हैं, सबकी अपनी- अपनी साहित्य, कला, संस्कृति और भाषा है। आदिवासी जातियों के गोड अपने को शासक जाति मानती आ रही हैं और प्राचीन काल में इस जाति के लोग ही गोंडवाना लैंड के शासक रहे उन्होंने एक विस्तृत भू-भाग पर शासन किया है। गोंड जाति अपने आप में शिक्षित सुसंस्कृत एवं शासक जाति के रूप में विख्यात रही है और इस जाति की विशिष्ट परंपरा कायम रही है खासतौर से धार्मिक परंपरा।
विंध्य संस्कृति शोध समिति उत्तर प्रदेश ट्रस्ट के निदेशक एवं आदिवासी संस्कृति के अध्येता दीपक कुमार केसरवानी के अनुसार- “जनपद सोनभद्र के विकासखंड घोरावल के ग्राम पंचायत सेमराकला में बेलन की सहायक नदी पर स्थित ढोंढ़उरा फाल में अवस्थित आदिवासियों के उपासना स्थल पर वह जाति के लोगों द्वारा प्रकृति शक्ति “फडापेन सजोर पेन का प्रतीक चिन्ह”को आदि शक्ति का रूप पूज्यते हैं।

शिक्षक साहित्यकार एवं सर्च लुक पत्रिका के संपादक डॉ बृजेश कुमार महादेव के अनुसार-“
सजोर पेन का मतलब ईष्ट , पूज्यनीय जो हमसे बड़े (पुरखे) वो शक्ति जो वेन (जीवित व्यक्ति ) मरने के बाद पेन ( मृत आत्मा ) जिनके सम्मान हम किसी नियत स्थान पर करते हैं । जो घर के बाहर यानि येन मड़ा (साजा पेड़) में मनाते हैं जैसे हम जीवित व्यक्तियों का एक परिवार होता है उसी प्रकार हमारे मृत आत्माओं को भी बेड़ागत कुंडा नेंग ( संस्कार ) के तहत मिला दिया जाता है जिनका एक परिवार होता है ।जिसे सजोर पेन विरंदा कहते हैं, और उन्हे जहाँ स्थापित किया जाता है उस स्थान को सजोर पेन ठाना कहते हैं । जिनके मुखिया अव्वा (मातृ ) पक्ष में पालो और बाबो (पितृ ) पक्ष में बूढ़ाल पेन होते हैं तथा फड़ापेन वह शक्ति है जो पाँच तत्व धरती , आग , हवा , पानी, आकाश, इन पाँच तत्वों के संघठन से जो समस्त जीव जगत को जीवन प्रदान करने वाली शक्ति को फड़पेन कहते हैं ।”
साहित्यकार प्रतिभा देवी की कृति आदिवासी जीवन में भी गोड जाति के साहित्य, कला और संस्कृति पर विस्तृत चर्चा की गई है जिसके अनुसार-” प्रकृति शक्ति फडापेन सजोर पेन का प्रतीक चिन्ह आज सम्पूर्ण गोंडियन गणों में आस्था और विश्वास के रूप में स्थापित हो चुका है । मूलनिवासी गणों की हजारों वर्ष पुरानी मान्यतायें जो पूर्ण वैज्ञानिकता लिये हैं। गोंडियन गणों का मूल दर्शन पूर्णतः जीव जगत कल्याण और प्रकृति संतुलन पर आधारित है।
आदिवासी लोक कला केंद्र सलखन पटवध के अध्यक्ष एवं रंगकर्मी हरिशंकर शुक्ला के अनुसार-“प्रकृति भूभाग या आधार जिस पर सम्पूर्ण जीव जगत टिका हुआ है जन्मता विलीन होता है । 750 गोत्रों की व्यवस्था इसी धरती पर संचालित है अतः अंकित किया गया है । इस धरती पर गण्ड जीव जो शरीर मानसिक और बौद्धिक तत्व के साथ विकसित होता है । त्रिमार्ग ही है उसे यथा अंकित किया। गण्ड जीव के विकासक्रम में ऋण और धन शक्ति जो सदैव नवसृजन का उत्तरदायी होता है इसे प्रदर्शित किया गया है । प्रतीकात्मक चिन्ह के बारे में डॉक्टर बृजेश महादेव बताते हैं कि-“गोलाकार के बीच में छिद्र है । यह भाग समाज के रूप में विकसित होकर 12 सगा घटको के समूह रूप में सारी दुनिया में दिखाई देता है जो प्रकृति प्रदत्त प्रमुख चार रक्त समूह में विद्धमान हैं । यही जीवित वेन हैं । जो मरने पर पेन के रूप में हमारी व्यवस्था में सदैव विद्धमान रहते हैं । इसमें 12 किरण ही फूटना चाहिए . यह नुकीला घेरा उपरोक्त व्यवस्था को राजकारण से संरक्षण दिये जाने के रूप में है जिन्हें हमारे 88 शम्भुओं द्वारा संरक्षक के रूप में दर्शाया गया है । इसमें केवल 88 नोक ही बनाये जाते हैं।
प्रारंभिक मानव जाति प्रकृति पूजक थी और आदिवासी जाति भारत की प्राचीन जातियों में एक है जिसने अभी तक प्राचीन पद्धति को आत्मसात कर रखा है आज के इस युग में इन आदिवासियों की ही परंपराओं पर निराकार ब्रह्म की उपासना की परिकल्पना की गई है।
आदिवासियों की सांस्कृतिक, सामाजिक परंपराएं अपने आप में महत्वपूर्ण है जो उस समय काल परिस्थिति के अनुसार जिसकी रचना की गई आज उस परंपरा को मानने वाले आदिवासी जन सोनभद्र के जंगली, बीहड़, भौगोलिक जटिलताओं वाली क्षेत्रफल में निवास करती हैं।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *